36 ग्राम पारद खरल में डालें।
फिर उसमें काले धतूरे का तेल डालकर इतना खरल करें कि,
वह पारद बिलकुल गाढ़ा बनकर उसकी जलुका रूप गुटिका बन्धने लगे।
यह मर्दन क्रिया पूरे सात दिन करनी चाहिए।
पश्चात उसकी गुटिका बनाकर उसके चारों ओर उड़द के
गुंधे हुए आटे का खूब मोटा वेष्टन चढ़ाकर उसको धूप में सुखा लें।
पुनः उस पर खूब धागा लपेटकर गेंदाकार बना लें
और राई के दस किलो तेल में पकाएँ।
जब सब तैल जलकर खत्म हो जाए तब उस गेंद को
निकाल कर छाया में रख दो।
तदन्तर मिट्टी के पात्र में दस किलो गौ का दूध भरकर उसमें वह गेंद छोड़ दो
और चूल्हे पर रखकर नीचे से अग्नि जला दो।
जब सारा दूध भी सूख जाए तब उस गेंद में से वह
सिद्ध पारद गुटिका निकाल कर उसकी परीक्षा करें।
यह गुटिका बकरे के मुँह में रखने से वह
अग्नि के समान रक्तवर्ण का दीखने लगता है।
अगर वह गुटिका बकरे के पेट में उतर गई तो वह मर जाएगा।
हाँ ? जब तक वह उसके मुँह में रहेगी तब तक वह बहुत ही कामानुसर रहेगा।
यह परीक्षा है उस सिद्ध गुटिका की।
अब इसको बुद्धिमान मनुष्य अगर अपने मुख में धारण करेगा तो वह 400
कोस चलकर भी नहीं थकेगा
और 100 स्त्री भोग की सामर्थ्य उसको प्राप्त होगा।
इस गुटिका से शुक्र का स्तम्भन होता है
और जब तक वह गुटिका मुंह में रहेगी तब तक न तो कोई उस पर वार चलाएगा
और न उसके किसी शस्त्र का घाव लगेगा।
दूसरे इसको मुख में रखने से 67 रोगों का उन्मूलन होता है।
तालु रोग, कण्ठ रोग और जिहा उपजिह्वा के तथा हृदय रोग,
पीनस इत्यादि सब दुष्ट रोग नष्ट होकर
शरीर हृष्ट पुष्ट होकर यह गुटिका धारण करने वाला सिद्ध
दैदिप्यमान होता है।
इसको खेचरी गुटिका कहते हैं।
अगर यह मनुष्य के मुँह में से
पेट उतर जाएगी तो प्राणों का हरण करेगी अतः सावधान।